प्रतिस्पर्धा और असमानता: एक जटिल अंतर्संबंध
परिचय
प्रतिस्पर्धा को आर्थिक विकास, नवाचार और व्यक्तिगत उत्कृष्टता का आधार माना जाता है। भारत जैसे विविध और विकासशील देश में यह प्रगति का प्रतीक है। किंतु, जब प्रतिस्पर्धा असमान सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं पर आधारित होती है, तो यह असमानता को न केवल बनाए रखती है, बल्कि इसे और गहरा करती है। यह लेख इस अंतर्संबंध का विश्लेषण करता है और इसके प्रभावों को समझने के साथ-साथ समाधान सुझाता है।
प्रतिस्पर्धा और असमानता का आर्थिक आयाम
आर्थिक प्रतिस्पर्धा में संसाधनों तक पहुंच एक निर्णायक कारक है। भारत में, जहां कुल संपत्ति का 1% सबसे धनी व्यक्तियों के पास 40% से अधिक है (ऑक्सफैम रिपोर्ट, 2023), यह स्पष्ट है कि प्रतिस्पर्धा समान अवसरों पर नहीं टिकी। उदाहरण के लिए, शहरी मध्यम वर्ग के पास बेहतर शिक्षा और तकनीकी सुविधाएँ हैं, जबकि ग्रामीण गरीब आबादी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। परिणामस्वरूप, नौकरी बाजार और उद्यमिता में सफलता उनके लिए आसान हो जाती है जो पहले से सक्षम हैं। यह 'मैथ्यू प्रभाव' (Matthew Effect) को दर्शाता है—जिनके पास है, उन्हें और मिलेगा।
सामाजिक संरचना में असमानता का विस्तार
भारत की सामाजिक संरचना—जाति, वर्ग, लिंग और क्षेत्रीय असंतुलन—प्रतिस्पर्धा को असमान बनाती है। NSSO डेटा (2022) के अनुसार, उच्च शिक्षा में अनुसूचित जनजातियों (ST) का नामांकन मात्र 5.5% है, जबकि सामान्य वर्ग का 25% से अधिक। जब UPSC या IIT जैसे प्रतिस्पर्धी मंचों की बात आती है, तो ग्रामीण और वंचित समुदायों के लिए कोचिंग और संसाधनों की कमी एक बड़ी बाधा है। यह असमानता पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है, जिससे सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility) कमजोर होती है।
शैक्षिक असमानता: प्रतिस्पर्धा का आधार
शिक्षा प्रतिस्पर्धा की नींव है, पर भारत में यह क्षेत्र भी असमानता से ग्रस्त है। ASER रिपोर्ट (2023) बताती है कि ग्रामीण स्कूलों में 50% से अधिक बच्चे कक्षा 5 के बाद बुनियादी गणित और पठन में असमर्थ हैं। दूसरी ओर, शहरी निजी स्कूलों में अंग्रेजी, तकनीक और अतिरिक्त प्रशिक्षण उपलब्ध हैं। नतीजा यह है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता आर्थिक स्थिति से अधिक जुड़ जाती है, न कि व्यक्तिगत योग्यता से। यह एक दुष्चक्र बनाता है—शिक्षा की कमी से रोजगार नहीं, और रोजगार की कमी से शिक्षा का अभाव।
नोवैज्ञानिक और स्वास्थ्य प्रमभाव
प्रतिस्पर्धा का दबाव उन लोगों पर भारी पड़ता है जो संसाधनों से वंचित हैं। लगातार असफलता आत्मसम्मान को चोट पहुँचाती है और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। NIMHANS के एक अध्ययन (2024) के अनुसार, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों में 30% से अधिक तनाव और अवसाद से ग्रस्त हैं। यह प्रभाव गरीब और वंचित वर्गों में अधिक गहरा है, क्योंकि उनके पास न तो आर्थिक सुरक्षा है और न ही सामाजिक समर्थन।
एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य
यह समस्या केवल भारत तक सीमित नहीं। विश्व आर्थिक मंच (WEF) की रिपोर्ट (2024) बताती है कि वैश्विक स्तर पर आय असमानता का जीनी गुणांक (Gini Coefficient) पिछले दो दशकों में बढ़ा है, और इसका एक कारण असमान प्रतिस्पर्धा है। विकसित देशों में भी, तकनीकी प्रगति और शिक्षा तक पहुंच ने 'डिजिटल डिवाइड' को बढ़ाया है। भारत में यह चुनौती और जटिल है, क्योंकि यहाँ पारंपरिक और आधुनिक असमानताएँ एक साथ मौजूद हैं।
समाधान का मार्ग
समान अवसरों की नीति: शिक्षा और स्वास्थ्य को मौलिक अधिकारों के रूप में सुदृढ़ करना। 'राइट टू एजुकेशन' को प्रभावी ढंग से लागू करना और ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण स्कूलों की संख्या बढ़ाना।
सकारात्मक भेदभाव (Affirmative Action): वंचित समुदायों के लिए कोचिंग, छात्रवृत्ति और तकनीकी प्रशिक्षण की व्यवस्था।
सामाजिक जागरूकता: प्रतिस्पर्धा को व्यक्तिगत जीत से अधिक सामूहिक प्रगति से जोड़ने की मानसिकता विकसित करना।
आर्थिक सुधार: सूक्ष्म-वित्त (Microfinance) और कौशल विकास योजनाओं के माध्यम से गरीब वर्ग को सशक्त करना।
निष्कर्ष
प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक रूप से असमानता को जन्म नहीं देती, बल्कि यह असमान सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं का परिणाम है। भारत जैसे देश में, जहाँ विविधता और असमानता साथ-साथ चलती हैं, प्रतिस्पर्धा को समावेशी बनाना एक अनिवार्य आवश्यकता है। यदि इसे संतुलित नहीं किया गया, तो यह कुछ के लिए सीढ़ी और बहुसंख्यक के लिए गड्ढा बन जाएगी। एक सशक्त राष्ट्र के लिए प्रतिस्पर्धा को अवसरों के समानीकरण का माध्यम बनाना होगा, न कि असमानता का हथियार।
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